सुनील सोनी की स्पेशल रिपोर्ट
परबतसर: लोक संस्कृति के संरक्षण की अलख जगा रहा है गैर नृत्य
आज के डिजिटल युग में जहाँ सोशल मीडिया, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), और आधुनिक तकनीकें तेज़ी से हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनती जा रही हैं, वहीं हमारी पारंपरिक संस्कृति और लोक कलाएं धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर हैं। राजस्थान की समृद्ध लोक विरासत भी इस बदलाव से अछूती नहीं रही है। विशेष रूप से, राजस्थान का प्रसिद्ध गैर नृत्य, जो कभी गाँव-गाँव की शान हुआ करता था, अब केवल कुछ ही स्थानों पर देखने को मिलता है। लेकिन परबतसर में यह परंपरा अब भी जीवित है और पिछले 6-7 वर्षों से लगातार आयोजित हो रही है, जिसमें समाज के हर वर्ग के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
गैर नृत्य: राजस्थान की ऐतिहासिक धरोहर
गैर नृत्य राजस्थान के प्रमुख लोक नृत्यों में से एक है, जिसे खासतौर पर होली और जन्माष्टमी के अवसर पर खेला जाता है। इस नृत्य में पुरुष पारंपरिक वेशभूषा में लकड़ी की लाठियों (डंडों) के साथ समूह में नृत्य करते हैं। ढोल, नगाड़े और शहनाई की मधुर ध्वनि पर थिरकते कदम इस नृत्य को जीवंत बना देते हैं। यह नृत्य न सिर्फ मनोरंजन का साधन है बल्कि सामुदायिक एकता और सांस्कृतिक पहचान को भी दर्शाता है।
परबतसर में गैर नृत्य का पुनर्जागरण
कभी परबतसर तहसील में कई स्थानों पर यह नृत्य आयोजित किया जाता था, लेकिन आधुनिकता और समय की कमी के चलते अब यह गिनी-चुनी जगहों पर ही सिमट गया है। हालाँकि, परबतसर में सतीश बागड़ा और अन्य लोकप्रेमियों की अगुवाई में पिछले 6-7 वर्षों से गैर नृत्य को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है।
बागड़ा निडम के सामने आयोजित होने वाला यह 10 दिवसीय भव्य कार्यक्रम पूरे क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना चुका है। यह आयोजन केवल एक परंपरा निभाने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे देखने और इसमें भाग लेने के लिए स्थानीय लोग, युवा, बुजुर्ग और महिलाएं उत्साह से आते हैं।
गैर नृत्य में पूरे समाज की भागीदारी
यह उत्सव सिर्फ एक वर्ग विशेष का नहीं, बल्कि पूरे समाज की सहभागिता का प्रतीक बन चुका है। गैर नृत्य में सभी समाज के लोग भाग लेते हैं, जिससे सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिलता है। इस आयोजन में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं और बच्चों की भागीदारी भी उल्लेखनीय होती है। महिलाएं “लूर” (राजस्थानी पारंपरिक लोकगीत) गाकर इस आयोजन को और अधिक रंगीन बना देती हैं।
होली के दिन तो इस आयोजन का उत्साह चरम पर पहुंच जाता है, जब हर कोई पारंपरिक राजस्थानी वेशभूषा में सज-धजकर नृत्य में भाग लेता है। रंगों और संगीत की यह जुगलबंदी मानो पुराने समय की यादें ताज़ा कर देती है।
लोक संस्कृति के लिए समर्पित लोग
इस आयोजन की सफलता के पीछे कई समर्पित लोग हैं, जो बिना किसी स्वार्थ के इस परंपरा को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। इनमें प्रमुख रूप से यश मुनि, रमेश बागड़ा, पूसाराम बागड़ा, भेरूराम कड़वा, कमल माहेश्वरी, मिलाप सिवाल, सीताराम बागड़ा, विष्णु बागड़ा, संजय बागड़ा, कुलदीप राजपुरोहित, राजेंद्र गोस्वामी, राजेंद्र जांगिड़, पन्नालाल सियाक और अन्य कई लोग शामिल हैं। इनके प्रयासों से ही यह गैर नृत्य उत्सव आज भी परबतसर में धूमधाम से मनाया जाता है।
सोशल मीडिया और तकनीक के प्रभाव में लोक संस्कृति का भविष्य
आज की युवा पीढ़ी सोशल मीडिया और डिजिटल मनोरंजन की ओर ज्यादा आकर्षित हो रही है, जिससे पारंपरिक लोक कलाओं में उनकी रुचि घटती जा रही है। यही कारण है कि गैर जैसे लोक नृत्य धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं।
हालांकि, परबतसर में इस तरह के आयोजनों के माध्यम से एक नई पहल हो रही है। यदि हम इस उत्सव को सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के जरिए प्रचारित करें, तो यह लोक नृत्य न सिर्फ परबतसर बल्कि पूरे राजस्थान और भारत में फिर से लोकप्रिय हो सकता है।
संस्कृति को बचाने की जरूरत
गैर नृत्य सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि राजस्थान की गौरवशाली विरासत है। इसे बचाने और आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी सिर्फ कुछ लोगों की नहीं, बल्कि पूरे समाज की है। आधुनिकता के साथ कदमताल रखते हुए भी हम अपनी लोक संस्कृति को जीवित रख सकते हैं, बशर्ते कि हमें इसकी अहमियत समझ में आए और हम इसे संजोने का प्रयास करें।
परबतसर का यह 10 दिवसीय गैर नृत्य उत्सव इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि यदि हम चाहें, तो अपनी सांस्कृतिक विरासत को बदलते समय के साथ भी संरक्षित और प्रोत्साहित कर सकते हैं। आइए, हम सभी इस पहल का हिस्सा बनें और अपनी संस्कृति को बचाने में अपना योगदान दें!
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