राजस्थान की रेत के समंदर में, जहां सूरज की तपिश से धरती अंगार बन जाती है, वहीं जन्मी एक प्रेम कथा सदियों से लोगों के हृदय को शीतलता देती है — ढोला-मारू की कहानी। यह केवल दो प्रेमियों की कथा नहीं है, बल्कि यह समर्पण, संघर्ष, प्रतीक्षा और विजय का प्रतीक है। इस लोकगाथा में जीवन का वह रंग है, जिसे समय भी धुंधला नहीं कर सका।


प्रारंभ: जब प्रेम ने अंगड़ाई ली

बहुत समय पहले की बात है। राजस्थान के नरवर राज्य के राजकुमार ढोला और पिंगल प्रदेश की राजकुमारी मारू का विवाह बचपन में ही तय कर दिया गया था। यह उस युग की परंपरा थी जब बच्चे राजा-महाराजाओं के राजनीतिक संबंधों में बंध जाते थे। विवाह के पश्चात् दोनों अपने-अपने महलों में लौट गए। समय बीतता गया, पर यह बाल विवाह केवल शाही दस्तावेजों तक ही सीमित रहा।

मारू, रूप की देवी और मन की सच्ची, ढोला को कभी भूल न सकी। वह दिन-रात अपने पति के बारे में सोचती रहती, उसकी प्रतीक्षा करती रहती। जब वह बड़ी हुई, तो उसकी आँखों में केवल एक सपना था — अपने प्रिय ढोला को फिर से पाना। परंतु दूसरी ओर, नरवर में ढोला को यह स्मरण ही न था कि उसका विवाह हो चुका है। वहां की एक दूसरी रानी मालवणी ने यह भेद ढोला से छिपा रखा था। वह नहीं चाहती थी कि ढोला अपने बचपन के विवाह को फिर से जीवित करे।


मारू की प्रतीक्षा और संदेश

मारू ने जब सुना कि ढोला अब युवराज बन चुका है, तो उसने कई संदेशवाहक भेजे — कभी चरवाहों के साथ, कभी गायक-वादकों के साथ — लेकिन हर संदेश मालवणी रानी के षड्यंत्रों के कारण ढोला तक नहीं पहुँच पाया।

आख़िरकार, एक दिन एक सारंगी वादक मारू के प्रेम से अभिभूत होकर, गीत के माध्यम से ढोला तक उसका संदेश पहुँचा देता है:

“ढोला जी! पिंगल री धरती पे इक तारा रोवै है,
मारू कहे, पिया बिन जीवन सारा खोवै है।”

इस गीत ने जैसे ढोला के दिल को झिंझोड़ दिया। उसे अपनी बचपन की शादी, अपने वचन, और उस छवि की स्मृति हुई जिसे उसने कभी समझा नहीं था — पर जिसने उसे कभी छोड़ा भी नहीं।


प्रेम का पुनर्जागरण और संघर्ष

ढोला ने तत्काल नरवर छोड़ने का निश्चय किया, पर रानी मालवणी ने उसे रोकने का हर संभव प्रयास किया। उसने जादू, विष, छल और भय — सबका सहारा लिया, लेकिन ढोला का मन अब मारू के लिए जाग चुका था।

ढोला ने ऊँट पर सवार होकर पिंगल की ओर यात्रा शुरू की। यह कोई सामान्य यात्रा नहीं थी — यह प्रेम की परीक्षा थी। रेगिस्तान की तपती हवाएं, लू, प्यास और मरुस्थल की अनगिनत कठिनाइयाँ… लेकिन जब दिल में प्रेम की ठंडी छाया हो, तो सबसे कठिन रास्ता भी आसान लगता है।

आख़िरकार, ढोला पिंगल पहुँचा।


पुनर्मिलन और भाग जाना

मारू अपने महल की छत पर खड़ी थी, हर दिन की तरह उस दिन भी अपने ढोला के इंतज़ार में। जब उसने दूर रेगिस्तान में किसी ऊँट सवार को देखा, तो जैसे उसका हृदय रुक गया। और जब वह पास आया, तो वह जान गई — यही है उसका सपना, उसका प्रेम, उसका ढोला।

दोनों की आँखें मिलीं, और जैसे युगों का विरह समाप्त हो गया। ढोला और मारू का पुनर्मिलन जैसे धरती पर प्रेम का उत्सव बन गया।

लेकिन इस प्रेम के मार्ग में बाधाएँ समाप्त नहीं हुई थीं।

मारू के पिता को जब यह ज्ञात हुआ कि ढोला उसे लेने आया है, तो उन्होंने इसका विरोध किया। वे नहीं चाहते थे कि राजकुमारी अपने पति के साथ इस तरह भागे। लेकिन मारू ने निर्णय कर लिया था।

ढोला और मारू, एक ऊँट पर सवार होकर पिंगल से भाग निकले — अपने प्रेम को जीवित रखने, उसे संसार से ऊपर सिद्ध करने।


भस्म करने वाली नागिन और प्रेम की विजय

मारू और ढोला की यात्रा अब एक नई कठिनाई की ओर थी। कहते हैं कि रास्ते में एक जहरीली नागिन, जिसे “उज्जयिनी की नागिन” कहा जाता था, ने मारू को डस लिया। ढोला ने उसका अंतिम संस्कार करने का निर्णय लिया, लेकिन तभी एक तांत्रिक योगी ने आकर उसे रोक दिया।

योगी ने कहा, “अगर तुम्हारा प्रेम सच्चा है, तो मारू फिर से जीवित हो सकती है।”

ढोला ने अपने प्रेम की अग्नि में तपकर प्रार्थना की। उसकी सच्ची भावना और समर्पण ने काल को भी पराजित किया। चमत्कार हुआ — मारू की साँसें लौट आईं। वह फिर से जीवित हो गई।

यह घटना ढोला और मारू के प्रेम की अंतिम परीक्षा थी — और उन्होंने समय, मृत्यु और संसार को जीतकर अपना प्रेम अमर कर दिया।


अमर प्रेम की विरासत

ढोला और मारू का प्रेम आज भी राजस्थान की लोककथाओं में जीवित है। आज भी लोकगीतों में सारंगी की मीठी धुन पर कोई गायक गाता है:

“ढोला मारू री गाड़ी चली रे,
रेत रा डूंगर लांघ चली रे…”_

यह प्रेम कहानी केवल प्रेमियों के मिलन की बात नहीं है — यह प्रतीक्षा की, समर्पण की, और उन सभी सामाजिक, सांस्कृतिक दीवारों को तोड़ने की कहानी है जो दो आत्माओं के बीच आती हैं।

राजस्थान की रेत में आज भी ढोला और मारू की ऊँटगाड़ी की छापे किसी जादू की तरह दर्ज हैं — अमर, अविनाशी और आत्मा को छू लेने वाली।